मंगलवार, 23 अगस्त 2011

ताकत अनशन की

अन्ना हजारे, एक नाम जिसमें लोग मसीहा की छवि देख रहे हैं। अपनी अवस्था के चौथेपन में पहुंच चुका यह शख्स युवाओं का भी आदर्श बन चुका है। सास-बहू धारावाहिक देखने वाली महिलाएं आज अन्ना और उनके अनशन से जुड़ी जानकारियों पर नजर रख रही हैं। ऐसे भी लोग हैं जो लोकपाल बिल और उसकी ताकतों से वाकिफ नहीं हैं, लेकिन वे इतना तो जानते ही है कि आज का यह गांधी उनकी बेहतरी के लिए कुछ अच्छा किए जाने की मांग कर रहा है।
मुहिम: क्या बच्चे, छात्र, नौकरीपेशा, युवा, अधेड़, सेवानिवृत्त और क्या बुजुर्ग, समाज का हर तबका और वर्ग अन्ना रूपी उम्मीद की इस आंधी में उड़ चला है। वहीं आजादी की दूसरी लड़ाई बताए जा रहे इस आंदोलन ने सरकार और प्रशासन की नींद उड़ा रखी है। शायद यही है सार्थक और सकारात्मक अनशन की ताकत।
मर्म: हर कोई अन्ना की इस सम्मोहनी ताकत से बरबस ही खिंचा हुआ महसूस कर रहा है। जनमानस को खींचने वाली अनशन की यह अदृश्य ताकत आज के परिवेश में बड़ा मुद्दा है।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

बैलगाड़ी पर सवार होकर आना चाहते थे किशोर


हिंदुस्तानी फिल्मों के हरफनमौला सितारे किशोर कुमार की जिंदादिली और खिलंदड़पन के किस्सों की कोई कमी नहीं है। मगर यह बात कम ही लोग जानते होंगे कि वह इंदौर में राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान लेने के लिए हवाई अड्डे से समारोह स्थल तक बैलगाड़ी पर सवार होकर आना चाहते थे।
मशहूर फिल्म समीक्षक श्रीराम ताम्रकर ने बताया, यह वर्ष 1985-86 का वाकया है। किशोर की इच्छा थी कि उन्हें शहर के हवाई अड्डे से समारोह स्थल तक बैलगाड़ी की सवारी से लाया जाए, जहां उन्हें मध्यप्रदेश सरकार का प्रतिष्ठित राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान दिया जाना था। लेकिन ऐसा हो न सका। उन्होंने बताया कि तत्कालीन प्रशासन ने सुरक्षा कारणों के चलते किशोर को बैलगाड़ी की सवारी कराने में असमर्थता जताई। दूसरे, कुछ अधिकारियों को डर था कि बॉलीवुड की मशहूर हस्ती की एक झलक पाने के लिए उमड़ने वाली भीड़ के बेकाबू होने पर बैल बिदक भी सकते थे। बहरहाल, किशोर तो किशोर थे। उन्होंने बैलगाड़ी से समारोह स्थल तक न आने की टीस मंच पर अपने चुटीले अंदाज में बयान भी की। समारोह में बतौर दर्शक शामिल ताम्रकर के मुताबिक, किशोर ने मंच से कहा कि वह पुरस्कार लेने के लिए बैलक्षमता वाली गाड़ी से आना चाहते थे। लेकिन उन्हें अश्वक्षमता वाली कार से समारोह स्थल आना पड़ा। चार अगस्त 1929 को मध्यप्रदेश जो तब मध्य प्रांत था के खंडवा में पैदा हुए किशोर मायानगरी मुंबई में बस गए। लेकिन उनका मन आखिरी सांस तक खंडवा की ठेठ कस्बाई संस्कृति में रमा रहा। वह अपने आखिरी दिनों में अक्सर कहा करते थे, दूध-जलेबी खाएंगे, खंडवा में बस जाएंगे। लेकिन 13 अक्तूबर 1987 को किशोर के निधन के साथ उनकी इस ख्वाहिश ने भी दम तोड़ दिया। उनकी इच्छा के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार उनके गृहनगर खंडवा में ही किया गया।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

चलें केदारनाथ!!!

कहते हैं, किस्मत वालों को ही श्री केदारनाथ के दर्शन हो पाते हैं। जिस किसी ने भी बैल की पीठ के स्वरूप में विराजमान महादेव का दर्शन कर लिया, वह धन्य हो गया!
केदारनाथ का मंदिर 3593फीट की ऊंचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इसकी कल्पना आज भी नहीं की जा सकती है! यह मंदिर एक छह फीट ऊंचे चौकोरप्लेटफार्म पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नंदी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हां ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने की। मंदिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगोंमें से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिंड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं। पंचकेदारकी कथा ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के शाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे।
दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत:भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का हिस्सा पकड लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढसंकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजेजाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतध्र्यान हुए, तो उनके धड से ऊपर का हिस्सा काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथका मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथमें, नाभि मदमदेश्वरमें और जटा कल्पेश्वरमें प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदारकहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं। यात्रा का संदेश
दृढसंकल्प, आत्मविश्वास और परिश्रम के अभाव में श्री केदारनाथ की दुर्गम पथरीलीराह पर चढाई संभव नहीं है। वास्तव में, यह यात्रा स्वर्गीय आनंद का स्त्रोत है। यहां न केवल मनोहर दृश्यावलियोंको सतत निहारने का आनंद मिलता है, बल्कि यह संदेश भी मिलता है कि संकट के रास्तों पर चले बिना सफलता के पुष्प नहीं खिल सकते हैं। भगवान शंकर भले ही भोलेनाथहों, लेकिन उन्होंने भ्रातृहत्या के लिए पांडवों को सहज ही क्षमा नहीं कर दिया।
पांडव भगवान शंकर से क्षमा प्राप्त कर बदरीधामकी ओर गए, जहां से स्वर्गारोहण का मार्ग प्रशस्त हुआ। अत:हम कह सकते हैं कि हिमालय का क्षेत्र देवलोक के समान है, जहां से स्वर्गारोहण का मार्ग खुलता है। इसलिए श्री केदारनाथ की यात्रा तप और साधना के समान है, जो हमें ईश्वर की गरिमा-महिमा का दर्शन कराकर आनंद से भर देती है।

गुरुवार, 18 जून 2009

आरती क्यों, कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।
एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है। जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं। नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं। सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है। तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है। सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं। नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

रियल स्टार थे फिरोज खान


स्टाइलिश एक्टर एवं फिल्म मेकर फिरोज खान के देहांत से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शोक व्याप्त है।
जैकी श्रॉफ उन्हें याद करते हैं, फिरोज जी असली स्टार थे। उनके जैसी स्टाइल और खुद्दारी किसी एक्टर में नहीं है। उन्होंने खुद को कभी बेचा नहीं। वे किसी की शादी या प्राइवेट फंक्शन में कभी नहीं नाचे। हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में उनका स्थान कोई नहीं ले पाएगा। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं उनके साथ काम नहीं कर सका। हम दोनों एक साथ फिल्म गैर इलाका में काम करने वाले थे। बाद में उन्होंने मुझे अपनी फिल्म मर्यादा पुरूषोत्तम राम में रावण की भूमिका के लिए साइन किया। उसमें राम की भूमिका रितिक रोशन निभाने वाले थे, लेकिन किसी कारणवश वह फिल्म बन न सकी। बाद में उन्होंने मुझे अपनी फिल्म कुर्बानी के रीमेक के लिए संपर्क किया। मैंने हां कह दिया था। वे उस फिल्म की तैयारी में लगे हुए थे, पर अफसोस की वह अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनकी वह ख्वाहिश अधूरी रह गयी। फिरोज खान निर्देशित आखिरी फिल्म जांनशीं थी। अभिनेत्री सेलिना जेटली खुद को भाग्यशाली मानती हैं कि उन्हें उनके साथ काम करने का मौका मिला। फिरोज खान के बारे में सेलिना कहती हैं, फिरोज जी मेरे मेंटोर और फ्रेंड थे। वे मुझे सेलिना बेबी कहकर बुलाते थे। उनके साथ काम करते हुए मैंने एक्टिंग और जीवन के बारे में बहुत सारी बातें सीखीं। वे आज भले ही मेरे साथ नहीं हैं, लेकिन उनकी बातें और यादें हमेशा मेरी हिम्मत बनकर साथ रहेंगी। मैं उम्मीद करती हूं कि ईश्वर के दरबार में मैं फिर उनसे मिलूंगी। फिल्मकार विवेक शर्मा की फिरोज खान से पहली मुलाकात दस वर्ष पहले महेश भट्ट के एडीटिंग स्टूडियो में हुई थी। उस क्षण को वे याद करते हैं, फिरोज खान को घोड़ों का शौक था। वे घंटों घोड़ों के ऊपर बात करते थे। वे पहले ही बता देते थे कि रेस में कौन सा घोड़ा जीतेगा और कौन हारेगा। आज उस पल को याद करता हूं तो उनका स्टाइलिश अंदाज सामने आ जाता है। वे आधुनिक एवं दूरदर्शी फिल्म मेकर थे। उन्होंने हिंदी सिनेमा के संगीत को कलरफुल बनाया। उन्होंने जीवन के अंतिम समय तक स्टाइलिश फिल्में बनायीं।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

वोट की शुरुआत की थी चिन्नी के ग्रामीणों ने के

आजाद भारत के इतिहास में सबसे पहले मतदान करने वाले हिमाचल प्रदेश के चिन्नी तहसील के गांववासी थे जिन्हें देश में जनवरी-फरवरी 1952 को हुए आम चुनाव से तीन महीने पहले ही वोट डालने का अवसर मिल गया था।
हिमाचल प्रदेश की इस तहसील में 23 अक्टूबर 1951 को वोट डाले गए थे क्योंकि इसके बाद यह घाटी सर्दियों की बर्फबारी के कारण शेष दुनिया से कट जाने वाली थी। चिन्नी तहसील के गांवों का नाता तिब्बत के पंचेम लामा से था और वे स्थानीय पुरोहितों के रीति रिवाजों के हिसाब से जीवन बिता रहे थे। चुनाव रिकार्डो से यह भी पता चलता है कि चिन्नी के ग्रामीणों ने इस मतदान को उत्सव की तरह मनाया था। वे नए घर के निर्माण पर होने वाले रिवाज गोरासांग, बौद्ध पुस्तकालयों के भ्रमण के उत्सव कांगुर जाल्मो, महिलाओं और बच्चों के पर्वतचोटियों पर चढ़ने के उत्सव मेंथाको और रिश्तेदारों के आपस में एक-दूसरे के यहां जाने के रिवाज जोखिया चुग सिमिग की तरह ही मतदान का पर्व मना रहे थे। इसके बाद उनके जीवन में हर पांच साल में आने वाला यह पर्व भी जुड़ गया।
सन् 1952 के चुनावों की रिपोर्टो से यह भी पता चला है कि पहले आम चुनाव में जनता और राजनीतिज्ञ दोनों ने ही अमन और कानून के पालन की प्रवृत्ति का परिचय दिया था। इस बात को तत्कालीन मुख्य
निर्वाचन आयुक्त ने दर्ज भी किया था। पहले आम चुनाव में मतदान प्रक्रिया से जुड़े 1250 मामले सामने आए थे और इनमें भी 100 मामले ऐसे थे जिनमें मतदान बूथ के आसपास प्रचार करने के दिलचस्प केस थे। इन मामलों में गायों पर चुनाव चिन्ह पेंट कर उन्हें मतदान केंद्रों के आसपास छोड़ दिया गया था। इस आम चुनाव में फर्जी मतदान के 817 मामले तथा मतपत्र बाहर लेकर 106 मामले सामने आए थे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक इंडिया आफ्टर गांधी में दर्ज है कि फरवरी 1952 के आखिरी सप्ताह में चुनाव नतीजा आया तो कांग्रेस ने 489 संसदीय सीटों में से 364 सीटें जीत लीं और राज्य विधानसभाओं की 3280 सीटों में से 2247 सीटों पर विजय हासिल की। इस चुनाव में सबसे बडी पराजय संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर की थी जिन्हें बुंबई निर्वाचन क्षेत्र में एक अनजाने से दुधिये काजरोलकर ने हरा दिया। इस पुस्तक के अनुसार सबसे अधिक वोटों से जीत एक कम्युनिस्ट रवि नारायण रेड्डी ने दर्ज की थी जिन्होंने व्हिस्की का पहला गिलास अपने चुनाव प्रचार के दौरान पिया था। उन्होंने पंडित नेहरू से भी बड़ी जीत हासिल की थी।