शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

आलू-प्याज से भी सस्ती इंसानी जान

फल-सब्जी इधर कई महीने से इतने महंगे हो गए हैं कि इंसानी जान उनके आगे सस्ती पड़ चुकी है। मंडी में आने वाले हर फल व हर सब्जी के ट्रक चालक को बोनस मिलता है, लेकिन इंसानी जान को अपनी जान के भी लाले पड़ जाते हैं। बात चौंकाने वाली जरूर हो सकती है, पर है सच।
कश्मीर से मंडी में पहुंचने की बात हो या हैदराबाद, बंगलुरु, कोलकाता व अहमदाबाद से। दूरी जितनी अधिक होगी, ट्रक चालक को उतना अधिक बोनस मिलता है। जानकारी के अनुसार, आजादपुर मंडी में जल्दी सब्जी व फल पहुंचाने के लिए ट्रक मालिक दो से छह हजार रुपये चालक को ईनाम देते हैं। त्योहारों का महीना हो तो इनाम की राशि और बढ़ा दी जाती है।
इन दिनों रमजान का महीना चल रहा है। ईद व दशहरा का त्योहार भी नजदीक है, लिहाजा ईनाम की राशि तीन से आठ हजार रुपए प्रति ट्रिप बोनस कर दिया गया है।
बोनस की लालच में ट्रक चालक कई जिंदगियों को रौंदने से भी बाज नहीं आते। कोई मरता है तो मरे, कोई जख्मी होता है तो होता रहे, ट्रक चालक को तो अपनी मंजिल पर पहुंचने से मतलब होता है। वह अगर फल-सब्जियों के साथ जल्दी मंडी नहीं पहुंचा तो ईनाम पाने से चूक जाएगा। चालक का यह लालच न जाने अब तक कितनों की जान ले चुका है। जानकार बताते हैं कि 24 घंटे ट्रक चलाने से चालक थक कर चूर हो जाते हैं। थकान मिटाने के लिए चालक नशे का सहारा लेता है। उस नशे में वह इंसानी फर्ज भी भूल जाता है। उसे अगर कुछ याद रहता है तो वह है जल्दी मंडी पहुंचने वाला बोनस। उसे पाने के लिए वह किसी भी दुर्घटना को अंजाम दे सकता है।
सरकार भले ही यह तथ्य न स्वीकार करें, लेकिन मंडी समितियों में बैठे अधिकारी व ट्रैफिक पुलिस इससे भलीभांति अवगत हैं। बावजूद इसके रोड रेस की इस योजना पर लगाम लगाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जबकि दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की अगस्त में जारी रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष 10 अगस्त तक ट्रक हादसे में 263 लोगों की मौत हो चुकी है। पिछले साल इन ट्रकों ने 305 लोगों को टक्कर मारकर मौत की नींद सुला दिया था और 675 लोग घायल हुए थे।
जानकारों के अनुसार चालक को टारगेट दिया जाता है कि 40, 50 या 55 घंटे में गाड़ी मंडी में पहुंच जानी चाहिए। यदि निर्धारित समय में चालक मंडी नहीं पहुंचता तो बोनस की रकम आधी हो जाती है। भला कौन चालक ऐसा चाहेगा, इसलिए कोलकाता की करीब1500 किलोमीटर की दूरी चालक चार दिन की जगह 48 घंटे में पूरी कर लेते हैं। इन दिनों कर्नाटक के हसन से मंडी में आलू व हुबली से अन्नानास आ रहा है, जिसे ट्रक चालक पांच दिन के बजाए चौथे दिन ही मंडी में पहुंचा दे रहे हैं। कुछ यही हाल महाराष्ट्र के नासिक व हैदराबाद एवं सेब से लदे शिमला व कश्मीर से आने वाले ट्रकों का भी है।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

दम तोड़ता बचपन



हाथों में बस्ता लेकर पढ़ने के लिए स्कूल जाने की उम्र में उसे नाजुक कंधों पर थाल व हाथ में झाबा लेकर स्कूलों के सामने भेलपुरी बेचना पड़ रहा है। खेलों से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है, क्योंकि उसे पता है कि यदि वह खेलों में रुचि लेने लगा, तो जिंदगी के खेल में उसे हार का सामना करना पड़ सकता है।
दस साल का यह बच्चा है लक्ष्मण, जो अपने परिवार की रोजी-रोटी व दो बड़ी बहनों की शादी के लिए रुपये जुटा रहा है। गरीबी से जंग जीतने की कोशिश में उसका बचपन दम तोड़ चुका है।
मूलरूप से नेपाल व मौजूदा समय में नई आबादी निवासी लक्ष्मण के नौ भाई-बहन हैं, जिनमें से चार बहनें और पांच भाई है। उसके पिता पल्लेदारी का काम करते हैं। स्कूलों के सामने भेलपुरी बेचने वाले लक्ष्मण ने बताया कि उसके चार भाई छोटे हैं तथा एक उससे बड़ा है। वह भी इसी तरह मजदूरी करता है। उसकी दो बहनों की शादी तो हो गई, लेकिन दो अन्य बहनों की शादी अभी बाकी है। उनकी शादी के लिए ही वह भेलपुरी बेचकर रुपये इकट्ठा कर रहा है। लक्ष्मण ने बताया कि उसकी चाहत थी कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाए, लेकिन गरीबी व मजबूरी ने उसकी यह चाहत पूरी नहीं होने दी। आज वह स्कूलों में तो जाता है, लेकिन पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि वहां के बच्चों को भेलपुरी बेचने।
लक्ष्मण ने बताया कि वैसे वह रोजाना 100 रुपये तक कमा लेता है, लेकिन वह किसी के लिए काम करता है, इसलिए उसे एक माह की तनख्वाह 600 रुपये मिलती है। उसने बताया कि वह गरीब होने के कारण अपना सामान नहीं खरीद सकता, इसलिए वह किसी के पास नौकरी करता है। उसे यह कार्य करते करीब छह माह हो गए हैं। शुरू में उसे यह काम मुश्किल भी लगता था, लेकिन अब वह इससे खुश है। हालांकि, बालश्रम कानून के तहत इस मासूम का इस तरह से कार्य करना उचित नहीं है और उसका सही स्थान विद्यालय ही है।