सुख और आनंद के मध्य अत्यंत सूक्ष्म भेद है। यह भेद इतना सूक्ष्म है कि कुछ लोग सुख को ही आनंद मान लेते हैं। यह कह देना कि सुख की पराकाष्ठा ही आनंद है-पूर्णत: उचित नहीं होगा। स्थूल रूप से बात करें तो कह सकते हैं कि सुख का संबंध शरीर और आनंद का संबंध आत्मा से होता है। कभी-कभी तो सुख के त्याग से भी आनंद की प्राप्ति होती है और कभी हम हाथ आए हुए आनंद के क्षणों की उपेक्षा करके केवल सुख प्राप्ति से ही संतुष्ट हो जाते हैं। अत:न तो इन्हें एक दूसरे का पूरक ही कहा जा सकता है-और न ही विरोधी। परंतु यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि सुख जीवन का अस्थायी भाव है और आनंद प्राप्त होने पर यह जीवन का स्थायी भाव हो जाता है। सुख का क्षय संभव है पर आनंद अक्षय है। बृहदारण्यकउपनिषद में हमें इसका अत्यंत सुंदर उदाहरण मिलता है, जहां महर्षि याज्ञवल्क्यसे मैत्रेयीपूछती हैं कि यदि सारी पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण हो जाए तो क्या मैं अमृत पद प्राप्त कर लूंगी? याज्ञवल्क्यने इसके जवाब में कहा-नहीं! ऐसा नहीं हो सकता। सांसारिक पदार्थो के बाहुल्ययुक्त व्यक्तियों का जैसा जीवन होता है वैसा ही तुम्हारा जीवन हो जाएगा। अर्थात सुख और संपन्नता से अमृत-पद प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि सुख ही मोक्ष का कारण होता तो भला इंद्र से अधिक सुखी और कौन है? परंतु सुखोंमें रचा-बसा इंद्र भोग का नियामक तो हो सकता है-मोक्ष का नहीं। इसी प्रकार आनंद भोग में नहीं है-भोग में केवल सुख है, आनंद तो त्याग में है। दण्ड देने में सुख तो हो सकता है पर आनंद तो क्षमा करने में है। बलशाली व्यक्ति अपने भय से स्थापित साम्राज्य का सुख-भोग तो कर सकता है, परंतु उसे आनंद प्राप्त करने के लिए मित्रता और कोमलताको अपनाना पडता है, क्योंकि स्वभाव की कोमलताहमारी आत्मा में ईश्वरत्वका अंश है। दया, धैर्य, समर्पण संतोष ओर पवित्रता हमारी आत्मा में आनंद का संचार करने वाले ऐसे तत्व हैं जो हमारे चारों ओर आनंद लोक निर्माण करते हैं।
अथर्ववेदमें कहा भी गया है-
शुक्रोऽसि भ्राजोऽसिस्वरसिज्योतिरसि..
अर्थात् तू शुद्ध, तेजस्वी आनंदयएवं प्रकाशमान आत्मा है। शुद्धता, आनंद और प्रकाश का यही आत्मतेजतेरे मुखमण्डल से भासित होना चाहिए। परंतु यह तभी संभव है, जब क्षमा, त्याग, दया, धैर्य, संतोष और समर्पण हमारे जीवन के आधार हों और इनका आनंद हमारी आत्मा को उद्भासित करे। इसलिए हमें सुख की नहीं-आनंद की कामना करनी चाहिए। महाभारत के शांतिपर्वमें कहा गया है कि सांसारिक भोगों में और स्वर्गादिके दिव्य महान सुखोंमें कोई सा भी सुख तृष्णा क्षय के सुख के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं। किसी भीड भरी यात्रा में बैठने का स्थान पाना सुख का कारण तो हो सकता है पर आनंद की अनुभूति तभी होती है यदि हम उस स्थान को किसी निर्बल और अवश व्यक्ति के लिए छोड देते हैं। संचय कर लेने से सुख तो स्वाभाविक है, परंतु आनंद की उत्पत्ति तभी संभव है जब हम ठंड से ठिठुरते किसी व्यक्ति पर दोशाला डालते हैं। पर्याप्त जल-भंडार के साथ मरुस्थल की यात्रा निरापद तो हो सकती है, परंतु आनंद तभी उपजता है जब हम लू के थपेडे झेलते हुए किसी प्यासे को दो घूंट पानी पिलाते हैं। हमारे दैनिक जीवन में ऐसे अनेकानेक अवसर आते हैं, जब हम दूसरे को सुख देकर अपने लिए आनंद बटोर सकते हैं। यही आनंद हमारी आत्मा को स्पर्श करता है और हमारे व्यक्तित्व को तेजोमय बनाता है। आवश्यक नहीं कि आनंद की व्युत्पत्ति केवल मनुष्य को ही सुख देने से हो-इसे हम अपने चारों ओर रहने वाले पशु-पक्षी, पेड-पौधे और अन्य जीवधारियोंसे भी प्राप्त कर सकते हैं। पर आनंद को कुछ घटनाओं, क्रियाओं और संदर्भो के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है। जैसे महारासने तो वृंदावन को ही आनंद लोक में परिवर्तित कर दिया था जहां गोपीरूपीआत्माएं आनंदरूपीरास के माध्यम से परमानंद परमात्मा में विलय की चेष्टाएं करती हुई दिखलाई देती हैं। चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन इसी आनंद की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता था। संत रैदासअपना कार्य करते समय भगवत भजन करते रहते थे। संत कबीर करघा चलाते हुए भजन गाते थे, क्योंकि अपने कार्याें से उन्हें जीविकोपार्जन का सुख तो मिलता था पर आनंद ईश्वर को स्मरण करने से ही मिलता था। नानक, सूर, तुलसी और मीराभी इस आनंद-पाठ के उदाहरण हैं।
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